Friday 5 July 2013

हुजूम और इंकलाब ...!!!

वो सर्दियों की रात थी 
अब गर्मियों के दिन हैं 
वो हुजूम जो चौक चौबारों बस अड्डों तक उठा था 
अब आराम फरमा रहा है...
मुद्दा रेप का रहा हो या लोकपाल का 
हम चिल्लाते हैं , घर से निकलते हैं 
फिर घर लौट के भूल जाते हैं 

जब फास्ट ट्रेक अदालतें महीनो लगा के 
आइन्दा सालों लगाने वाली हों 
तो क्या बेहतर नहीं कि विक्टिम 
खुद ही गुनेहगार का क़त्ल ही कर दे
गांधीवादियों से अनुरोध है कि 
अहिंसा का धर्म भेडियों पर लागू नहीं होता 


मुझे तो आदत ही है 
उस मुद्दे में नहाने की 
जिसके बासे पानी से तुम्हे बू आती है 

हम भुला दिए जाते हैं 
क्यूंकि हमें खुद भूलने की आदत है 
हुजूम में जोश होता है 
इन्किलाब में मकसद और मियाद 

मुद्दा जब छोटे और बड़े लुटेरे का हो 
तो भले छोटे को न चुने 
कम से कम 
बड़े लुटेरे के खिलाफ तो चुने 
क्यूंकि अगर तुम नहीं चुनोगे 
तो मैं तुम्हारे खिलाफ चुनूंगा 

और वो लुटेरा बड़ा ही होगा … !!!

Tuesday 19 February 2013

पोस्ट मोर्टम



"मुन्नाभाई एम् बी बी एस " पिक्चर का एक सीन बार बार याद आता है। वो सीन जिसमे माननीय मुन्नाभाई एक डेड बॉडी को डिसेक्ट करते वक्त बेहोश हो जाते हैं। मेरे कई डॉक्टर दोस्तों ने हँसते हुए बताया था कि पहले मर्तबा वो भी चक्कर खा गए थे या बेहोश हो गए थे। बाद में उनको धीरे धीरे इस प्रक्रिया की आदत पड़ गई।

15 फरवरी 2013 को जब लोग फेसबुक पर बिलेटेड हैप्पी वैलेंटाइन्स डे की शुभ कामनाएं भेज रहे थे,उस शाम श्रीमती अनुराधा शर्मा जी ने आत्महत्या कर ली। उनकी पुत्री कुमारी गीतिका शर्मा ने 5 अगस्त  2012 को आत्महत्या की थी। कुल 194 दिनों की मानसिक पीड़ा झेलने के बाद माँ ने उसी कमरे में पंखे से लटक कर जान दे दी जिस कमरे में बेटी ने आत्महत्या की थी। अपने सुसाइड नोट में वो अपने बेटे को सशक्त रहने का आशीर्वाद दे गई। किसी बाहुबली के द्वारा प्रताड़ित होने पर आत्महत्या की यह पहली घटना नहीं है।

मैं इंतज़ार करता रहा कि फेसबुक पर इस घटना की जन प्रतिक्रिया आएगी, लेकिन लगता है कि  मेरे डॉक्टर दोस्तों की तरह हम सबको इस तरह के जीवित पोस्ट मोर्टम की आदत पड़ गई है। 

दिल्ली गेंग रेप में सबने अपनी प्रतिक्रिया दी, तो इस मामले या इस तरह के अन्य मामलो में क्यूँ नहीं? शायद हम "सेलेक्टिव सरोकारी" हैं। हमको मतलब ही उस चीज़ से है, जिसमे शोर है, आवाज़ है। जहाँ प्रदर्शन है, धरना है, मीडिया है, वही आवाज़ सुनी जाती है , जहाँ ये सब न हो , वहां फेसबुक है। 

ये दिल्ली है। यहाँ जनतंत्र है, गणतंत्र है, मीडिया है, जागरूक जनता है, प्रदर्शनकारी लोग हैं, आवाज़ उठाने वाले छात्र हैं। जिस मुद्दे को तूल न मिले, उसे ये तूल दिला सकते हैं। देश में मुद्दे और घटनाएं इतनी हैं कि हर किसी की "इन टाइम " सुनवाई तो छोड़िये , सुनवाई ही होना यथार्थ से परे है। मुझे अभी तक आश्चर्य है, कि अनुराधा शर्मा जी की आत्महत्या पर प्रतिक्रिया स्तर नगण्य क्यूँ रहा।

बात महिला सशक्तिकरण की होती है, आवाज़ उठाने की होती है। मेरे गृह जिले पन्ना की उन गोंड युवतियों और महिलाओं का क्या, जिन्हें न अंग्रेजी आती है, न फेसबुक। जो बच्चा जनने के अगले दिन पेट पे कपडा बाँध कर मजदूरी को निकल पड़ती हैं। भई , कमाएंगी नहीं तो खायेंगी क्या। जिनके साथ ठेकेदारों द्वारा छेड़खानी आम बात है। रेप इत्यादि जहाँ कभी कानूनी रजिस्टरों तक नहीं पहुच पाते। इन गोंड महिलाओं को शायद अपने सच्चे हक़ के लिए अगले जनम तक का इंतज़ार करना पड़े। 


देश तरक्की कर रहा है, पर न्यायिक प्रक्रिया अभी भी धीमी है, मेरे पास आशावादी होने के सिवाय दूसरा कोई विकल्प नहीं है, एक दिन लोग इतने जागरूक होंगे, इतने मर्मस्पर्शी होंगे कि हर मुद्दे को आवाज़ मिलेगी, बाहुबलियों के चलते ये आत्महत्याएं बंद होंगी।हम "सेलेक्टिव सरोकारी  " से "सर्व सरोकारी " बनेंगे।  हमको इन पोस्ट मोर्टम की आदत पड़  चुकी है, इस आदत से पीछा छुड़ाने तक मै यह बात दोहराता रहूँगा।  


Friday 4 January 2013

खिसियानी बिल्ली खम्भा नोचे ...

एक अजब सी खिसियाहट है ...

पिछले कई दिनों से लोगों की जागरूकता मुझे कनफुजिया रही है। अचानक लगने लगा था कि  जैसे मैं किसी नए देश में आ गया हूँ। जिसे देखो, देश हित की बातें कर रहा था, साल बीतते बीतते लोगों के मुद्दे भी बदल गए।फिर नए साल के साथ, सुर्खियाँ बदल गई, और क्रिकेट की हार सबसे बड़ा बवाल बन गई, अगर हम क्रिकेट में जीत जाते, तब भी यही हाल होना था, क्रिकेट है ही ऐसी चीज़। 

भई , तो असल मुद्दे पर आते हैं। ऐसा क्यूँ है की इस देश में कोई भी आन्दोलन ज्यादा दिन टिक नहीं पाता? क्यूँ एक बदलाव आते आते शून्य हो जाता है? क्यूँ परिवर्तन का सूर्य क्षितिज पर उदय हो कर वहीँ अस्त हो जाता है?

इस सवाल के जवाब कई सालों से तलाश रहा हूँ, कुछ उत्तर मिले हैं, सो आपसे बाँटने की जुर्रत कर रहा हूँ। यदि आप के पास कोई बेहतर विकल्प, उत्तर या सुझाव हो, तो मुझे ज़रूर बताइयेगा। हमारे देश की सबसे बड़ी समस्याओं में से एक है पापुलेशन प्रेशर। आप सोचोगे मैंने क्या शेखचिल्ली टाइप  बात कर दी? आन्दोलन की जान होते हैं देश के युवा। मुद्दा ये है कि मुझ जैसे युवा (मैं अब भी अपने आप को युवा समझने की गुस्ताखी के लिए माफ़ी चाहूँगा ) जो किसी आन्दोलन के ईंट पत्थर बन सकते हैं, वो रोजगार की लड़ाई में व्यस्त हैं। जनसँख्या विस्फोट के चलते हमारे देश में नौकरी और हीरा दोनों एक सामान बहुमूल्य हैं। पश्चिमी देशों के जैसे, हम छह   महीने काम करें और छह   महीने सैर, ऐसा तो हो नहीं सकता। नौकरी का भूत आन्दोलन में  लगातार बैठने नहीं देता। जो कालेज के बच्चे हैं, वो भी सेशनल  और सेमेस्टर एक्साम में फंस  गए।अब आन्दोलन के लिए मशीनों की तरह चाइना से आदमी तो इम्पोर्ट किये नहीं जा सकते।अंततः आन्दोलन या परिवर्तन उसी स्तिथि में आ जाते हैं, जहाँ भूखे भजन न होंय गोंपाला।

दूसरा मुद्दा है देशभक्ति या देश प्रेम। कहने को हम सब भारतीय हैं, लेकिन भारतीय होने से ऊपर हम सब की और भी कई पहचाने हैं। मसलम मैं एक हिन्दू लाला हूँ,मैं एक मध्य प्रदेश का गाँव वाला हूँ, दिल्ली वालों की नज़र में शायद बिहारी,और भारतीयों की नजर में, मैं सब कुछ हूँ सिवाय एक भारतीय होने के। अँगरेज़ हमको बाँट गए थे, और इसी फोर्मुले पे आज तक देश की राजनीति चल रही है। बहुसंख्यक-अल्पसंख्यक, जनरल, ओ बी सी और एस सी एस टी, हिन्दू -मुसलमान; भारतीय होने का न कोई जिक्र है, न  कोई गर्व, न कोई मुद्दा। पंद्रह अगस्त और छब्बिस जनवरी त्यौहार कम और छुट्टियां ज्यादा माने जाते हैं। हमारी शिक्षा, हमारी परवरिश में भारतीय होने की महत्ता का कहीं पर भी प्रेक्टिकल एक्साम्प्ल नहीं मिलता; सो मुझे लगता है, कि  वक़्त आ गया है कि हम बाँटने की जगह जुड़ना सीखें।

तीसरा मुद्दा है, सरकार और जनतंत्र। यहाँ आधी जनता वोट नहीं देती और जो आधी  देती है, उसके आधे से कम में किसी नेता का चुनाव हो जाता है। वोटिंग के सिस्टम में बदलाव की जरूरत है। वोट टू  रिजेक्ट के साथ साथ और भी कई बदलावों की  ज़रूरत है। उम्मीद करता हूँ, मेरे रहते रहते ऑनलाइन वोटिंग का आप्शन आ जाएगा। शायद वोट डालने पर कुछ इन्सेंटिव  (कृपया इसे धन से ना जोड़ें ) या वोट न डालने पर कुछ ल़ोस  से जोड़ा जाए, तो हमारे जनतंत्र में काफी परिवर्तन हो सकता है। बदलते समय के साथ वोटिंग में कई परिवर्तन किये जा सकते हैं। बात ऐसे तरीकों की है, जो जनतंत्र में भागीदारी को और पारदर्शी बनायें। मुझे उम्मीद है कि  अगले दस साल टेक्नोलोजी के चलते ऐसा परिवर्तन संभव है।

आखिरी मुद्दा है हम और आप। कोईभी टेक्नोलोजी। कोई भी आन्दोलन ऐसा परिवर्तन नहीं ला सकता जो हम आप ला सकते हैं। महज आलस्य के चलते मुद्दों  को न टालें। यदि आप किसी मुद्दे से सरोकार रकते हैं, तॉ आवाज   ज़रूर उठायें। माना कि  कोई दूसरा आपके लिए लड़ रहा है, पर अगर आप साथ खड़े होंगे, तो शायद उसको बल मिल सके। माना आप की नौकरी है, असाइनमेंट्स  हैं, पर अगर आप एक दो घंटे निकाल घर से बाहर निकल अपनी आवाज़ उठाएंगे तो परिवर्तन को गति मिलेगी। अपनी नहीं तो  अपने प्रियजन की सोचिये, शायद आपके मुट्ठी भर प्रयास से उन्हें एक बेहतर कल मिल जाए। 

तब तक मैं ऐसे ही किसी खिसियानी बिल्ली की तरह आपके खम्भे नोचता  रहूँगा।

Monday 31 December 2012

अकबरी ज़माने की बात है ...

अकबरी ज़माने की बात है ...


एक गाँव में ज़मींदार के पास सैकड़ों सांड थे। ये सांड आस पास के गाँवों तक की फसल बर्बाद कर देते थे। सो गाँव वाले फ़रियाद ले के राजा के पास गए। फैसला हुआ कि  आगे से जो भी सांड फसल बर्बाद करेगा, उसे कांजी हाउस (आवारा जानवरों को बाँधने की जगह ) की जगह बूचडखाने में कटवा दिया जाएगा। गाँव वाले ख़ुशी ख़ुशी लौट आये। महीने भर बाद सांड फिर खेतों में घुस गए। 
ज़मींदार को चिंता हुई की उसके बैल नाहक मारे जायेंगे, सो वो जा पहुचा कोतवाल के पास। कोतवाल ने पांच अशर्फियों में सांड बूचडखाने की जगह कांजी हाउस भेज दिए। ज़मींदार पंहुचा कांजी हॉउस के मालिक के पास। उसने पांच अशर्फियाँ ली और कहा कि  तुम वजीर को सम्हाल लो, बाकी मैं देख लूँगा। वजीर ने बीस अशर्फियों में हामी भर दी। तयशुदा दिन पर मुकदमा शुरू हुआ।

राजा- ज़मींदार तुम्हारे सांड खेत में घुसे थे?
ज़मींदार- हैं ...? सांड...? न जी माहराज,... मैं तो बकरियां पालता हूँ 
गाँव वाले- महाराज, ये झूठ बोल रहा है।
वजीर - तुम सब चुप रहो नहीं तो महाराज की गुस्ताखी में फांसी चढ़ा दिए जाओगे 
राजा - जानवरों को हाज़िर करो 
(कांजी हाउस का मालिक सारे भैंसों पर चूना पोत  के ले आया)
राजा- ये इतने बड़े बकरे?
ज़मींदार- माहराज मेरे खेत में बड़ी घांस होती है, वही इनको पीस के खिलाता हूँ, सो ये इतने बड़े हो गए हैं 
गाँव वाले- माहराज झूट बोलता है 
वजीर- सिपाहियों इन सब गाँव वालों ने माहाराज के सामने गुस्ताखी की है, इन सभी को पांच पांच कोड़े रसीद करो 
(गाँव वाले रहम रहम चिल्लाते रहे और जल्लाद कोड़े बरसाते रहे )
फिर राजा तीन महीने को काश्मीर घूमने निकल गया, लौट के वापस आया तो मुकदमा फिर शुरू हुआ

राजा- घांस पीस के क्यूँ खिलाते हो? 
ज़मींदार- माहराज, ये अजब नस्ल के बकरे हैं, इनके दांत ही नहीं होते 
(तीन महीने में ज़मींदार ने पांच भैंसों के दांत तुडवा दिए  थे )
राजा- मुझे तसल्ली नहीं, मै खुद इनके मुह देखूंगा 
राजा ने सांडों के तीन मुह देखे और तसल्ली कर ली 

राजा - हाँ तो फैसला हो गया, ये अजब नस्ल के बकरे हैं... सांड नहीं...; इनको वापस ज़मींदार को सौंप दो, और इस फैसले पर मुस्तैदी से अमल हो कि  सांड अगर फसल बर्बाद करे, तो उसे सीधे बूचडखाने भेज दिया जाए ...

वजीर, ज़मींदार, कोतवाल  और बूचडखाने का मालिक - महाराज का इकबाल बुलंद रहे...!!!!!!!! ऐसा इन्साफ न आज तक देखा न सुना।तारिख आपके इन्साफ को सदियों तक बयान करेगी ...!!!!!!!!

रियासत में फिर दोबारा कभी खेतों में सांडों के घुसने की शिकायत नही  आई। 


अकबरी ज़माने की बात है ...


वैसे, सुना है देश में रेप के विरुद्ध कानून बदलने जा रहा है ???

Wednesday 12 December 2012

तीसरी की किताब ...


एक अरसे पहले की बात है। सैनिक स्कूल से हूँ। स्कूल में दौड़ भाग, खेल कूद और पी टी परेड से बदन चुस्त और सेहत दुरुस्त रहती थी। फिर बरसों बैठे रहने के बाद कमर 30 से 32 हुई तो मुझे चिंता सताने लगी। सोचा डम्बल शम्बल भांज  के थोडा फिट हो जाऊं। गूगल देव से दिल्ली के खेल कूद सामान के दूकानदारों के पते मांगे। भाई हम ठहरे सिंगल पसली आदमी, सो अपनी शर्म और झिझक को छिपाने के लिए एक हट्टे कट्टे  दोस्त को ले कर जा पहुंचे करोल बाग़ में गुलाटी स्पोर्ट्स। ये दूकान दूकान कम और गोदाम ज्यादा लगती है, शायद इसीलिए यहाँ शहर से लगभग आधे दाम में सामान मिलता है।ये मार्केटिंग के खर्चे का अतिरिक्त बोझ आपकी जेब पर नहीं डालते।अपने वजन के हिसाब से हमने सबसे हलके लड़कीनुमा डम्बल खरीद लिए। बचपन में दीपक भारती के साथ स्केटिंग सीखी थी, सो कुछ स्केट्स के पहियों पर ऊँगली घुमा के पुराने दिन ताज़ा किये।साइकिल के बाद स्केट्स ही ऐसी चीज़ थी जिसने मुझे आज़ाद परिंदे की फीलिंग्स सिखाई। 

पैसे देने के लिए जैसे ही काउंटर  पर पहुचे, तो एक सत्तर साल का बुजुर्ग तीसरी क्लास की किताब पढ़ रहा था। गौर से देखा तो पास ही मोरल साइंस की किताबों का ढेर लगा था। गुफ्तगू शुरू हो गई। उसने बताया कि  कैसे पुराने दिनों में कसरत का रिवाज़ रहता था, कैसे बड़े बड़े मुगदल (विदेसी डम्बल के देसी महा बाप) भांजे जाते थे। "आप की बहिन बेटियों की इज्जत ट्रेन में नहीं लुटी, तो आप क्या जाने आदमी के बाजुओं में ताकत का क्या मतलब होता है" उसकी एक बात ने मुझे महीनो कुरेदा।एक बात ही बटवारे का दर्द बयान कर गई।मैं इस दर्द को समझने में शायद उम्र और अकल  से बहुत छोटा हूँ।कुछ दर्द शायद सदियों में भी नहीं मिटते।
फिर बात हुई मोरल साइंस की किताबों की। "आप बड़े हो के सब पढ़ते हो,डाक्टर इंजीनियर बनते हो और बचपन की बेसिक बातें भूल जाते हो। दोस्त पड़ोसियों की मदद करना, भूखों को खाना खिलाना, कमजोर के लिए लड़ना। चाचा चौधरी और बिल्लू - पिंकी की किताबों में भी सामाजिक जिम्मेदारियों से भरी बातें होती थी, (बैटमेन  में क्या है, ये मुझ गंवार से मत पूछियेगा। )
फिर बातों बातों में उसने दोनों हाथों में एक एक मुगदल लिए और आठ दस बार भांज दिए। हमने मन ही मन सोचा बुजुर्ग आदमी है, मुगदल हल्के  होंगे। फिर मेरी अर्ध पारदर्शी  काया  पे तरस खाते हुए उसने एक मुगदल मेरे हट्टे कट्टे दोस्त को थमा दिया। मैं भौचक्का रह गया जब भांजना तो दूर, मेरा दोस्त उस मुग्दाल को दोनों हाथों से सीधा खड़ा भी न रख पाया।पुराने देसी घी का दम मुद्दतों माद देखा मैंने।कभी फुर्सत मिले तो जरूर जाइएगा गुलाटी स्पोर्ट्स (भाई इस विज्ञापन का गुलाटी ने मुझे एक भी रूपया नहीं दिया।)

भाई वो बात अरसे पहले की है, आज भी सोचता हूँ, हमारे देश में पहले अखाड़े होते थे, नाग पंचमी के दंगल मैंने बचपन में खूब देखे थे। अब नाईट शिफ्ट वाले काल सेंटर हैं। सेहत और शहर जैसे एक दुसरे के दुश्मन हैं। 
इन सब से ऊपर अक्सर सोचता हूँ, और मिस करता हूँ अपनी तीसरी की मोरल साइंस की किताब को। काश उसे जवानी में दो चार बार और पढता तो एक बेहतर इंसान होता। 
वैसे, आप आजकल क्या पढ़ रहे हैं?

Wednesday 5 December 2012

FDI बोले तो ...फाड़ दो इण्डिया



बचपन में नानी कहानी सुनाती थी। कहानी सुनने में हूंकने  (बीच बीच में हामी भरने ) का नियम रहता था। 
ऐसी एक कहानी थी एक रानी की कहानी। किस्सा कुछ यूँ था कि रानी के पास एक बर्तन था जिसमे एक किलो दूध था, एक पाव  की चाय बन गई, एक पाव  की मिठाई , एक पाव का दही और बर्तन में सवा किलो दूध बचा था।मैंने हामी में हूँ कर दी। नानी बोली, कैसा लाला है तू? एक किलो से तीन पाव जाने के बाद सवा किलो कैसे बच  सकता है?
आज संसद में सरकार वही कहानी पूरे देश को सुना रही है। रिटेल में ऍफ़ डी  आई की कहानी। सारे मजदूर किसान फलेंगे फूलेंगे।सारे बिचौलिए ख़तम हो जायेंगे। भाई मेरी मूर्खता मुझे बताती है की सब से ज्यादा बिचौलिए तो सरकारी कामो में लगे हैं। राशन की दुकानों से ले कर आर टी ओ तक।
टी वी तो आप देखते ही हैं, अखबार भी पढ़ते हैं। क्या आप बता सकते हैं कि  पिछली मर्तबा आपने कब खबर पढ़ी थी कि  "किसी मिठाई की दूकान से त्यौहार पर मिठाई खरीद कर खाने से किसी की सेहत बिगड़ी हो? ऐसा कभी कभार ही होता है, पर हर दीपावली पर न्यूज चैनल मिलावटी दूध की खबर इतनी बढ़ा  चढा कर दिखाते क्यूँ दिखाते हैं? भाई मिठाई नहीं बिकेगी तो क्या बिकेगा? जवाब है कैडबरी और कुरकुरे। अब यही फार्मूला देश के संपूर्ण रिटेल पर लागू होगा। आने वाले दिनों के विज्ञापन भी बदल जायेंगे 
क्या आप खुले खेतों का गेहूं खाते हैं? इसमें कितने बेक्टीरिया होंगे जो आपके बच्चे के लिया जानलेवा हो सकते हैं, खाइए फलाना कंपनी का प्रोसेस्ड गेहू।
डेड सी से परिष्कृत नमक, जो आपकी दाल में जगाये एक इंटर नेशनल महक, खाइए और खो जाइए (या चाहें तो भाड़  में जाइये)
असंगठित खुदरा व्यापर कहीं भी किसी भी स्तर  से संगठित खुदरा का मुकाबला नहीं कर सकता। इस दूध की मलाई और मक्खन किधर जाएगा, सबको पता है। 

नानी सच्ची थी, नानी की कहानियाँ भी सच्ची थी। अफ़सोस कि  मैं वोट डालते वक़्त नानी की कहानियाँ भूल गया। अरे ! आप वोट डालने नहीं आये थे? सॉरी, भूल गया था, आपने वोट की छुट्टी में कई पेंडिंग काम जो निपटाने थे, काम निपट गए, और देश पेंडिंग रह गया। 

Sunday 20 May 2012

मिट्टी और पारस...

गर्मियां आईं तो ठन्डे पानी की तलब जागने  लगी. फ्रिज के पानी से मेरे देसी गले की प्यास नहीं बुझती. सो निकल पड़ा मटका खरीदने.मटके के पानी में एक अजब स्वाद होता है मिट्टी का.हैण्ड पम्प के पानी के हल्के खारे स्वाद जैसा. गाँव में कुम्हारों को देखा करता था घूमते चाक पर कच्चे मटके गढ़ते. जादूगरी सा  लगता था, मिट्टी से कुछ भी बना देते थे गाँव के कुम्हार.  त्योहारों के मेले में कई खिलोने खरीदे मिट्टी के. मकर संक्रांति के घोड़े,लक्ष्मी जी का हाथी, अक्षय तृतीय के गुड्डे गुडिया,और दीपावली के गड़ेश जी.
घर के पास "पारस" नाम का कलाकार रहता था.नाम के अनुरूप उसके हाथों में पारस बसता था.मिट्टी को छू के हाथों से नवदुर्गा की ऐसी मूर्तियाँ गढ़ता था कि नास्तिकों  के भी सर झुक जाएँ.वो उस समुदाय का था , जो लोग घर चलाने के लिए  सूअर पालते हैं. लेकिन ये सूअर कभी मुझे उसके घर जाने से नहीं रोक पाए, घंटों उसकी कला निहारता रहता था. गीली मिट्टी तो होती ही ऐसी है कि छू लो तो आनंद आ जाए. शहर में  मिट्टी नहीं मिलती खेलने को. यहाँ "पैक्ड मड" मिलती है, १०० रूपए किलो, जो छूओ तो कड़े आटे सी लगती है, और इसकी महक कि तुलना मैं बारिश कि मिट्टी से तो बिलकुल नहीं करूँगा. सरकार ने मुझ से मेरी मिट्टी चुरा ली...

खैर, मिट्टी तो  देश में हर जगह चुराई जा रही है, कहीं खदानों के नाम पर, कहीं बांधों के नाम पर और कहीं विकास के नाम पर. बाबू और नेता मिट्टी से सोना बना रहे हैं अधिग्रहण के नाम पर. और जिसकी मिट्टी है, वो मिट्टी हो रहा है. इनका बाल भी बांका नहीं होता, कुछ होता है तो मेरे गाँव के उन अनपढ़ गरीब लोगों का जो नहीं जानते कि केन नदी कि रेत उनकी बपौती नहीं, राष्ट्रीय संपत्ति है, जो दो कमरे का घर बनाने के लिए नदी से रेत ढोते हैं और माफिया कहलाते हैं. मेरा तन भी इस देश की मिट्टी से बना है, सो डरता हूँ कि सरकार मुझे भी माफिया न करार कर दे...

अजी छोडिये, बहुत अनाप शनाप हो गया, वैसे भी आपका अपना बंगला है, आपको मिट्टी से क्या?
मिट्टी कि तो तासीर ही है कि ये हमेशा किसी कि नहीं रहती, हमेशा एकरंग कि नहीं रहती, ये गर्मी में फटती  है और  बारिश में पिघलती है...
देखना, एक दिन मैं भी  फटूंगा ,  पिघलूँगा , और इसके जैसा मिट्टी बन जाऊंगा...!!!!!!!!!!